वो गिलास वाली चाय

वो गिलास वाली चाय

पहाड़ो में भयंकर ठंड होती है और उस ठंड से बचने का सबसे अच्छा उपाय था – गर्मागर्म चाय।  और उस पर गुड़ के कटक वाली चाय मिल जाये तो ठंड के लिए रामबाण औषधि का काम करती थी।  ये ठंड से बचने का उपाय कब, कैसे चाय से ज़िन्दगी भर का नाता जोड़ गया, पता ही नहीं चला।    

अब भी जब गाँव जाता हूँ – माँ कप में चाय नहीं देती, वो गिलास में भर कर देती है। उन्हें पता है कप की चाय से मुझे चाय पीने में मजा नहीं आता। कप में चाय पीना तो इस दिल्ली शहर ने सिखाया। चाय सिर्फ सुकून नहीं देती, मुझे चाय मेरे बचपन में ले जाती है। माँ के हाथो से अंगीठी की धीमी आंच में केतली में से निकली वो गिलास वाली चाय अब भी जेहन में ताजा और गरम है। उसकी महकती खुसबू जैसे तन मन में वो ताजगी भर देती थी की पहाड़ो में होने वाली थकान कैसे काफूर होती थी, पता ही नहीं चलता था।  पूरा गिलास खाली करने के बाद भी माँ पूछती थी, “और लेगा” और बिना मेरी ‘हाँ’ सुने वह उसी केतली से फिर गिलास भर देती थी और कहती थी, “कल से तुझे सिर्फ सुबह और शाम ही चाय मिलेगी।” और फिर अगले दिन वही क्रम दोहराया जाता था।   माँ तो खाने के समय भी बोलती थी, “इसका पेट तो चाय से भर जायेगा, इसको चाय ही पिला दो। “चाय मेरे में ताजगी प्राप्त का माध्यम तो था ही, मगर अपनी माँ से हलकी फुलकी डाँट खाने का जरिया भी था जो मुझे अपनी माँ के और करीब ले जाता था।  अब भी कई बार घर में अकेला होता हूँ तो फिर से गिलास में चाय डालकर पीता हूँ।   अद्भुत आनंद की प्राप्ति होती है और चेहरे पर सुकून और दिमाग में एक अलग सी ताजगी का एहसास होता है।